दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय के पूर्व डीन और अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के प्रो. अनिल सद्गोपाल ने शिक्षा नीति पर गंभीर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि इस शिक्षा नीति को संविधान की कसौटी पर परखें तो क्या यह सब बच्चों को ’केजी से पीजी तक बराबरी की बुनियाद पर खड़ी भेदभाव से मुक्त शिक्षा देगी? क्या यह नीति लोकतांत्रिक मूल्यों पर टिके समतामूलक व जाति, वर्ग, नस्ल, पितृसत्ता, जन्म स्थल व भाषाई वर्चस्व से मुक्त समाज के लिए समर्पित नागरिक तैयार कर पाएगी? क्या यह विद्यार्थियों में तार्किक चिंतन, वैज्ञानिक मानस और सामाजिक बदलाव के जज़्बे के बीज बो पाएगी? इन सभी सवालों का जवाब ’ना में मिलेगा चूंकि इसमें शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण, मनुवादीकरण और अति-केंद्रीकरण करवाने और भेदभाव पर टिकी बहु-परती व्यवस्था खड़ी करने के प्रावधान हैं.
इसका नतीजा होगा कि अधिकांश बहुजन बच्चों को, जो देश के 85 फ़ीसद हैं और मुख्यतः मज़दूर वर्ग के हैं, उन्हें 12वीं कक्षा के पहले ही बेदखल कर दिया जाएगा. यानी, 85 फ़ीसद बच्चों को उच्च शिक्षा से वंचित किया जाएगा, साथ में आरक्षण, छात्रवृत्ति व हॉस्टल आदि सामाजिक न्याय के एजेंडे से भी। ऊपर से ऑनलाईन शिक्षा का विदेशी कॉरपोरेटी पूंजी का एजेंडा, जिसका मकसद ही मुनाफ़ाखोरी है, सभी संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ़ है और ऊपरोक्त बेदखली को और तेज़ करेगा। कुल मिलाकर यह नीति देश पर ज्ञान छीनने और गुलामगिरी का एजेंडा थोपने की वैश्विक पूंजीवाद की साजिश है.
दूसरी ओर एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक और शिक्षाविद जगमोहन सिंह राजपूत इसे शिक्षा में बेहतर बदलाव कह रहे हैं. जेएस राजपूत का कहना है कि नई शिक्षा नीति का वे स्वागत करते हैं. यह काफी बेहतर है. शिक्षा नीति समय और जरूरतों के अनुसार बदलनी चाहिए. समय के अनुसार शिक्षा में नई समस्याएं आती है, उनके नए समाधान आते हैं. इस शिक्षा नीति में वे सभी चीजें रखी गई हैं जो जरूरी हैं. बच्चों का तनाव कम किया गया है. बस्ते का बोझ कम किया गया है. बच्चों को अपनी रूचि के अनुसार विषय पढ़ने की छूट दी गई है. अगर कोई विद्यार्थी ग्रेजुएशन के पहले साल में छोड़कर चला जाता है तो उसका सर्टिफिकेट भी मिलेगा साथ ही वह बाद में आगे पढ़ाई कर सकता है. ऐसी अनेक चीजों का समाधान निकाला गया है जो बड़ी कठिनाइयां थीं.राजपूत का कहना है कि लोग आरोप लगा रहे हैं कि विदेशी शिक्षण संस्थाओं के आने से यहां अवसर कम होंगे तो आलोचक ये बताऐं कि जब हमारे लाखों विद्यार्थी पढ़ने के लिए विदेश जाते थे, तब सवाल क्यों नहीं उठे. यहां से बड़ा पैसा बाहर जा रहा था. अब अगर बड़े संस्थान यहां आएंगे तो यहां सुविधाएं बढ़ेंगी, बाहर के छात्र यहां आएंगे तो इसमें हर्ज क्या है. इसके साथ ही ऐसी उम्मीद है कि सरकार शिक्षा का बजट भी बढ़ाएगी.
New Education Policy 2020: देश में नई शिक्षा नीति को लेकर बहस छिड़ गई है.
नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एसोसिएशन के निदेशक ए के शर्मा भी इस शिक्षा नीति को बेहतर और शिक्षा के क्षेत्र बड़े बदलावों की ओर ले जाने वाली नीति मान रहे हैं. उनका कहना है क एफडीआई को लेकर जो समस्याएं और सवाल लोग उठा रहे हैं ऐसा कुछ नहीं होगा. इसके साथ नवीं से लेकर 12वीं तक जो सेमेस्टर सिस्टम किया है वह छात्रों के हित में हैं. इस शिक्षा नीति के अलावा सरकारी स्कूलों में शिक्षकों पर ध्यान देने की भी जरूरत है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सदस्य रहे राम शंकर कुरील भी इसे बहुत बड़ा सुधार कह रहे हैं. उनका कहना है कि यह नीति ढांचागत बदलाव से लेकर सिस्टम, प्राथमिकताओं, शिक्षा, स्किल्ड, व्यावसायिक और रोजगारपरक शिक्षा, सेमेस्टर सिस्टम में किया गया एक सफलतापूर्वक बदलाव है.
देशभर में कॉमन होना सिलेबस, ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचेगी टेक्नोलॉजी और प्रतिभा
कुरील कहते हैं कि इस नीति के आने के बाद पूरे देश में एक जैसा सिलेबस हो जाएगा. कॉमन पेपर होंगे, एक ही समय पर परीक्षाएं होंगी. इससे देशभर में होने वाली प्रवेश परीक्षाओं में सभी भाग ले सकेंगे. राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनेगा. जिसका नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री करेंगे और देशभर की शिक्षण संस्थाओं की मॉनिटरिंग होगी. एक बड़े छाते के नीचे सब होगा. इसके अलावा ब्यूरोक्रेसी भी कम होगी. इस आयोग में शिक्षाविदों और प्रोफेसरों को जगह दी जाएगी जिससे शिक्षा में बेहतरी की उम्मीद बढ़ेगी.
इसके अलावा जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि बेहतर टेक्नोलॉजी, इंजीनियर देने वाले आईआईटी, बेहतर मैनेजमेंट स्किल देने वाले आईआईएम सहित देश की योग्यता पैदा करने वाली यूनिवर्सिटीज की जिम्मेदारी उस योग्यता को देश के विकास में लगाने की होगी. इसके लिए रिसर्च के साथ ही संस्थानों से निकलने वाली योग्यता और नॉलेज ग्रासरूट लेवल पर जाएगी. एक रिसर्च फाउंडेशन बनाया गया है जिसके माध्यम से हर क्षेत्र में रिसर्च को बढ़ावा मिलेगा.वहीं सस्ते मजदूर पैदा करने के आरोपों पर कुरील कहते हैं कि यह आरोप गलत है बल्कि अब छात्रों के पास अपनी गलती सुधारने का मौका होगा. नवीं में कोई विषय लेने के बाद उसे बाद तक पढ़ना होता था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. अब छात्र 11वीं में या ग्रेजुएशन में भी अपनी पसंद का विषय चुन सकेगा और रुचि के हिसाब से व्यावसायिक शिक्षा में भी जा सकेगा.

नई शिक्षा नीति में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक तमाम बदलाव किए गए हैं.
एजुकेशन एक्टिविस्ट बोले, शिक्षा के प्राइवेटाइजेशन को मिलेगा बढ़ावा..
सुप्रीम कोर्ट के वकील और एजुकेशन एक्टिविस्ट अशोक अग्रवाल कहते हैं कि जो नई शिक्षा नीति आई है, इसमें जो 12वीं तक यूनिवर्सलाइजेशन ऑफ एजुकेशन की बात कर रहे हैं, अगर यह लागू होती है तो इसका फायदा जो आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चे हैं जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं उनको मिलेगा. यह बात केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका के जवाब में कही थी. तो इसके लिए राइट टू एजुकेशन में संशोधन करना पड़ेगा. साथ ही इसका खर्च राज्य सरकारों को देना होगा. जिससे ये बच्चे 12वीं तक शिक्षा का लाभ ले सकेंगे. हालांकि इसमें कई ऐसी चीजें हैं जो शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देगा. वहीं इसे लागू करने के बाद कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला है. इसमें शिक्षकों और अन्य स्कूल कर्मचारियों के शोषण को रोकने के लिए समान वेतन और समान काम के बारे में कुछ नहीं कहा है. बोर्ड परीक्षा को आसान बनाना भी आज के दौर के लिए कोई बेहतर विकल्प नहीं है. रिपोर्ट में सेवाओं की सुरक्षा की कोई बात नहीं है. ऐसे में यह नीति शिक्षा को पीपीपी मोड पर ले जाने की कोशिश जैसी है.
समाजशास्त्री बोले, कुछ सुधारों के साथ कुछ कमियां भी हैं..
डा. बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय आगरा के समाजशास्त्र विभाग के हेड प्रो. मोहम्मद अरशद कहते हैं कि नई शिक्षा नीति में जहां कुछ चीजें बेहतर हैं तो कुछ बातें काफी जटिल हैं और भारत की फेडरल व्यवस्था के अनुकूल नहीं हैं. इसमें पांचवी या आठवीं तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई करने की बात कही गई है. पहले से ही सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में बंटे शिक्षा संस्थानों में अंग्रेजी मीडियम और हिन्दी मीडियम की कलह है. इसके बाद क्षेत्रीय या मातृभाषा में पढ़ाई के बाद इन स्कूलों का गैप और बढ़ जाएगा. कहीं ऐसा न हो कि अंग्रेजी मीडियम प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुझान और ज्यादा हो जाए और ये व्यवस्था एक प्रतिकूल स्थिति पैदा कर दे.
1948 से अभी तक हर बार जीडीपी का 6 फीसदी खर्च शिक्षा पर करने की बात कही जाती रही है लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा, ये बड़ा सवाल है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो ये नीति भी सिर्फ नीति बनी रह जाएगी. इसके अलावा कॉमर्शियलाइजेशन और प्राइवेटाइजेशन के बढ़ने की भी संभावना बन रही है. वहीं यूजीसी नेक आादि को मर्ज करने से पॉवर का केंद्रीकरण हो जाएगा. जबकि फेडरल व्यवस्था में राज्यों को भी जिम्मेदारी देनी चाहिए.
अरशद कहते हैं कि कुछ चीजें जो अच्छी हैं जैसे वोकेशनल एजुकेशन, पढ़ाई बीच में छूटने पर दोबारा शुरू करने की छूट, इग्नू की तर्ज पर सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री देना आदि. हालांकि नीतियां सभी अच्छी होती हैं लेकिन निर्भर करता है कि वह लागू कैसे होती हैं. इसके साथ ही अगर इस नीति को लागू करने से पहले डिबेट का मौका दिया गया होता तो चीजें और छनकर आतीं.

नई शिक्षा नीति के तहत योग्यता को देश के ही विकास में लगाने की योजना है.
इंडियन नेशनल टीचर कांग्रेस ने भी किया शिक्षा नीति का विरोध
इंटेक के संयोजक डा. पंकज गर्ग का कहना है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति निजी शिक्षण केंद्रों को शिक्षण-अधिगम की आउटसोर्सिंग को प्रोत्साहित करेगी. विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने मानदंडों पर काम करने की अनुमति देकर शिक्षा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति दी जा रही है. नई शिक्षा नीति में प्रौद्योगिकी का उपयोग शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ गरीब तबका और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को वंचित करेगा क्योंकि उनके पास ऑनलाइन शिक्षा के लिए उचित संसाधन नहीं हैं. केन्द्र सरकार सार्वजनिक शैक्षिक विश्वविद्यालयों को वित्त पोषित करने और शिक्षा क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने की अपनी जिम्मेदारी से भागने का इरादा रखती है. सरकार ऋण आधारित शिक्षा की ओर बढ़ रही है और विश्वविद्यालय को अपने स्वयं के संसाधनों को उत्पन्न करने के लिए मजबूर कर रही है जो केवल छात्रों की फीस में वृद्धि करके किया जा सकता है.
मंत्रालय का नाम बदलने को बेहतर बता रहे विशेषज्ञ
नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एसोसिएशन के निदेशक ए के शर्मा कहते हैं कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करना बहुत अच्छा कदम है. शिक्षक भी जब कहीं बताते थे कि वे मानव संसाधन विकास विभाग में कार्यरत हैं तो अटपटा ही लगता था. वहीं बाहर का व्यक्ति भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय का मतलब नहीं समझ पाता है.
वहीं शिक्षाविद जेएस परिहार कहते हैं कि शिक्षा कोई मानव संसाधन नहीं है, इसलिए नाम बदलने का काम बेहतर हुआ है. शिक्षा मंत्रालय नाम पूरी तरह स्पष्ट है और सही है. वहीं कुरील कहते हैं कि शिक्षा मंत्रालय नाम रखना एकदम सही है. इसके लिए बहुत बहस हुई, अनेक सुझाव आए तब कहीं जाकर फैसला हुआ. इससे शिक्षा पर फोकस बढ़ेगा.