राजस्थान में जारी सियासी संकट के बीच एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानमंडल के मामलों में उसकी भूमिका को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थन वाले विधायकों ने शुक्रवार को पांच घंटे तक धरना दिया और राज्यपाल कलराज मिश्र से कहा कि वह बहुमत परीक्षण के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र बुलाएं।
सचिन पायलट से विवाद के बाद सरकार के लिए खड़ी हुई मुश्किलों के बीच मुख्यमंत्री गहलोत ने पूर्ण बहुमत का दावा किया और कहा कि ऊपरी दबाव की वजह से राज्यपाल सत्र नहीं बुला रहे हैं। इस तरह पायलट और गहलोत के बीच चल रही खींचतान, अब मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल में भी बदलती दिख रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि विधानसभा सत्र को बुलाने को लेकर क्या राज्यपाल मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य हैं और राज्यपाल किस हद तक विवेक से फैसला ले सकते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स से बातचीत में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सतशिवम ने कहा कि संविधान के अनुसार, ऐसी सलाह को लेकर राज्यपाल बाध्य हैं, लेकिन जब मुख्यमंत्री का समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या जैसे मुद्दों पर विवाद होता है, तो यह एक विशेष मामला हो जाता है।
यह भी पढ़ें: राज्यपाल के सवालों पर गहलोत की नई रणनीति, विधानसभा में करना चाहते हैं कोरोना पर चर्चा
उन्होंने कहा कि राज्यपाल विधायकों को राजभवन में बुला सकते हैं, उनसे पूछताछ कर सकते हैं और विधायक समूहों के साथ चर्चा कर सकते हैं। राज्यपाल का मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य होने वाला सामान्य नियम यहां प्रासंगिक नहीं हो सकता है।
संविधान इस संबंध में क्या कहता है?
संविधान की अनुच्छेद 163 और 174 विधानसभा को बुलाने के लिए राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर नियमों की चर्चा है। अनुच्छेद 163 में कहा गया है कि सीएम के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सहायता और सलाह देगी, लेकिन तब नहीं जब उन्हें संविधान के तहत अपना विवेकाधिकार इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को दरकिनार करके कब अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या वह विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर भी ऐसा कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों और अनुच्छेद 174 में निहित है। इसमें कहा गया है कि राज्यपाल को जब भी ठीक लगे, वह समय-समय पर सदन की बैठक बुलाएंगे, लेकिन एक सत्र के आखिरी दिन और अगले सत्र के पहले दिन के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर ना हो।
अनुच्छेद 174 का मसौदा संविधान के अनुच्छेद 153 से सामने आया है। अनुच्छेद 153 के तीसरे खंड में कहा गया है कि सदन को बुलाने की शक्तियों का इस्तेमाल राज्यपाल अपने विवेक से करेंगे। संविधान सभा में जब इस अनुच्छेद पर चर्चा हुई तो संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर सहित कुछ सदस्यों ने इस नियम का विरोध किया था।
आंबेडकर ने यह कहकर इसे हटाने की मांग की थी कि यह संवैधानिक राज्यपाल की योजना के साथ असंगत है। उनके प्रस्ताव को मंजूरी दी गई और इस धारा को हटा दिया गया। मसौदा अनुच्छेद 153 बाद में अनुच्छेद 174 बना। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं की मंशा विधानसभा बुलाने के लिए राज्यपाल को विवेकाधार देने की नहीं थी।
राजस्थान में जारी सियासी संकट का मामला देखते-देखते राजभवन, विधानसभा और फिर कोर्ट तीनों जगह पहुंच चुका है। राज्य में जिस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई है, उससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह विवाद लंबा चलने वाला है। हालांकि, यह पहली बार है कि बागी विधायक अयोग्य ठहराए जाने को कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश में भी सत्र को लेकर हो चुका है टकराव
गौरतलब है कि ऐसी ही एक स्थिति अरुणाचल प्रदेश में उत्पन्न हुई थी, जब मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने राज्यपाल को 14 जनवरी 2016 को विधानसभा सत्र बुलाने को कहा। लेकिन राज्यपाल ने इसके उलट एक महीने पहले ही 16 दिसंबर 2016 को सत्र का आयोजन किया। इस कारण राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हो गया।
वहीं, मुख्यमंत्री तुकी ने इस फैसले का विरोध करते हुए विधानसभा भवन पर ताला लगवा दिया। दूसरी तरफ, विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। राज्यपाल ने कहा कि उनके निर्णय को लेकर अदालत दखलअंदाजी नहीं कर सकती है।
इसके बाद यह मामला पांच न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा गया। सुनवाई के दौरान, 13 जुलाई 2016 को देश की शीर्ष अदालत ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा कि राज्य के मुख्यमंत्री की अनुशंसा के विपरीत समय से पूर्व सत्र बुलाने का फैसला असंवैधानिक था।
राजस्थान में जारी सियासी संकट के बीच एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानमंडल के मामलों में उसकी भूमिका को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थन वाले विधायकों ने शुक्रवार को पांच घंटे तक धरना दिया और राज्यपाल कलराज मिश्र से कहा कि वह बहुमत परीक्षण के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र बुलाएं।
सचिन पायलट से विवाद के बाद सरकार के लिए खड़ी हुई मुश्किलों के बीच मुख्यमंत्री गहलोत ने पूर्ण बहुमत का दावा किया और कहा कि ऊपरी दबाव की वजह से राज्यपाल सत्र नहीं बुला रहे हैं। इस तरह पायलट और गहलोत के बीच चल रही खींचतान, अब मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल में भी बदलती दिख रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि विधानसभा सत्र को बुलाने को लेकर क्या राज्यपाल मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य हैं और राज्यपाल किस हद तक विवेक से फैसला ले सकते हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स से बातचीत में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सतशिवम ने कहा कि संविधान के अनुसार, ऐसी सलाह को लेकर राज्यपाल बाध्य हैं, लेकिन जब मुख्यमंत्री का समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या जैसे मुद्दों पर विवाद होता है, तो यह एक विशेष मामला हो जाता है।
यह भी पढ़ें: राज्यपाल के सवालों पर गहलोत की नई रणनीति, विधानसभा में करना चाहते हैं कोरोना पर चर्चा
उन्होंने कहा कि राज्यपाल विधायकों को राजभवन में बुला सकते हैं, उनसे पूछताछ कर सकते हैं और विधायक समूहों के साथ चर्चा कर सकते हैं। राज्यपाल का मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य होने वाला सामान्य नियम यहां प्रासंगिक नहीं हो सकता है।
संविधान इस संबंध में क्या कहता है?
संविधान की अनुच्छेद 163 और 174 विधानसभा को बुलाने के लिए राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर नियमों की चर्चा है। अनुच्छेद 163 में कहा गया है कि सीएम के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सहायता और सलाह देगी, लेकिन तब नहीं जब उन्हें संविधान के तहत अपना विवेकाधिकार इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को दरकिनार करके कब अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या वह विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर भी ऐसा कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों और अनुच्छेद 174 में निहित है। इसमें कहा गया है कि राज्यपाल को जब भी ठीक लगे, वह समय-समय पर सदन की बैठक बुलाएंगे, लेकिन एक सत्र के आखिरी दिन और अगले सत्र के पहले दिन के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर ना हो।
अनुच्छेद 174 का मसौदा संविधान के अनुच्छेद 153 से सामने आया है। अनुच्छेद 153 के तीसरे खंड में कहा गया है कि सदन को बुलाने की शक्तियों का इस्तेमाल राज्यपाल अपने विवेक से करेंगे। संविधान सभा में जब इस अनुच्छेद पर चर्चा हुई तो संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर सहित कुछ सदस्यों ने इस नियम का विरोध किया था।
आंबेडकर ने यह कहकर इसे हटाने की मांग की थी कि यह संवैधानिक राज्यपाल की योजना के साथ असंगत है। उनके प्रस्ताव को मंजूरी दी गई और इस धारा को हटा दिया गया। मसौदा अनुच्छेद 153 बाद में अनुच्छेद 174 बना। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं की मंशा विधानसभा बुलाने के लिए राज्यपाल को विवेकाधार देने की नहीं थी।
कैसे खत्म होगी राजस्थान में गतिरोध की स्थिति?
राजस्थान में जारी सियासी संकट का मामला देखते-देखते राजभवन, विधानसभा और फिर कोर्ट तीनों जगह पहुंच चुका है। राज्य में जिस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई है, उससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह विवाद लंबा चलने वाला है। हालांकि, यह पहली बार है कि बागी विधायक अयोग्य ठहराए जाने को कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश में भी सत्र को लेकर हो चुका है टकराव
गौरतलब है कि ऐसी ही एक स्थिति अरुणाचल प्रदेश में उत्पन्न हुई थी, जब मुख्यमंत्री नबाम तुकी ने राज्यपाल को 14 जनवरी 2016 को विधानसभा सत्र बुलाने को कहा। लेकिन राज्यपाल ने इसके उलट एक महीने पहले ही 16 दिसंबर 2016 को सत्र का आयोजन किया। इस कारण राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हो गया।
वहीं, मुख्यमंत्री तुकी ने इस फैसले का विरोध करते हुए विधानसभा भवन पर ताला लगवा दिया। दूसरी तरफ, विधानसभा अध्यक्ष नबाम रेबिया ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। राज्यपाल ने कहा कि उनके निर्णय को लेकर अदालत दखलअंदाजी नहीं कर सकती है।
इसके बाद यह मामला पांच न्यायाधीशों की पीठ को सौंपा गया। सुनवाई के दौरान, 13 जुलाई 2016 को देश की शीर्ष अदालत ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा कि राज्य के मुख्यमंत्री की अनुशंसा के विपरीत समय से पूर्व सत्र बुलाने का फैसला असंवैधानिक था।